الثلاثاء، 26 يوليو 2011

अल्लाह तआला पर ईमान का अर्थ


अल्लाह तआला पर ईमान का अर्थ
मैं ने संपूर्ण रूप से अल्लाह तआला पर ईमान लाने की फज़ीलतों के बारे में बहुत अधिक पढ़ा और सुना है, मैं आप से यह अनुरोध करता हूँ कि अल्लाह पर ईमान लाने के अर्थ का विस्तार पूर्वक वर्णन करें ताकि वह मेरे लिए उसको संपूर्ण रूप से साकार करने, और हमारे नबी मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के तरीक़े और आप के सहाबा के तरीके़ के विरूद्ध चीज़ों से दूर रहने पर सहायक हो।
हर प्रकार की प्रशंसा और स्तुति अल्लाह के लिए योग्य है।
अल्लाह पर ईमान का अर्थ : अल्लाह सुब्हानहु व तआला के अस्तित्व, उसकी रूबूबियत, उसकी उलूहीयत, और उसके नामों और गुणों पर सुदृढ़ विश्वास रखना है।
अल्लाह तआला पर ईमान लाने में चार चीज़ें शामिल हैं, जो उन पर ईमान लाया वह सच्चा मोमिन है।
प्रथम : अल्लाह तआला के वजूद (अस्तित्व) पर ईमान लाना:
अल्लाह तआला के वजूद (अस्तित्व) पर अत्याधिक शरई (धार्मिक) प्रमाणों के साथ साथ, फित्रत (प्रकृति) और बुद्धि भी दलालत करते (तर्क) हैं।
1- अल्लाह तआला के वजूद पर फि़त्रत (प्राकृतिक स्वभाव) की दलालत (तर्क) यह है कि: प्रत्येक प्राणी वर्ग (मख्लूक़) बिना किसी पूर्व सोच विचार या शिक्षा के प्राकृतिक रूप से अपने खालिक़ (जन्मदाता) पर ईमान रखता है, इस प्राकृतिक तक़ाज़े से वही व्यक्ति विमुख हो सकता है जिसके हृदय पर उस से विमुख करने वाला कोई बाहरी प्रभाव अधिकार जमा ले,  क्योंकि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का फरमान है:
"प्रत्येक पैदा होने वाला -शिशु- (इस्लाम की) फित्रत (प्रकृति) पर जन्म लेता है, फिर उसके माता-पिता उसे यहूदी बना देते हैं या ईसाई बना देते हैं या पारसी (अग्नि पूजक) बना देते हैं। (सहीह बुखारी हदीस संख्या :1358, सहीह मुस्लिम हदीस संख्या :2658)
2- अल्लाह तआला के वजूद (अस्तित्व) पर बुद्धि की दलालत (तर्क) यह है कि: सारे पिछले और आगामी जीव-जंतु के लिए ज़रूरी है कि उनका एक उत्पत्तिकर्ता (जन्मदाता) हो जिस ने उनको पैदा किया हो, क्योंकि ऐसा सम्भव नहीं है कि जीव प्राणी स्वयं अपने आपको वजूद में लायें, और यह भी असम्भव है कि वे सहसा पैदा हो जायें।
कोई प्राणी (मख्लूक़) स्वयं अपने आपको इस लिए पैदा नहीं कर सकता क्योंकि कोई वस्तु अपने आप को स्वयं पैदा नहीं कर सकती; क्योंकि अपने वजूद से पूर्व वह स्वयं अस्तित्व-हीन (मा’दूम) थी, फिर सृष्टा (ख़ालिक़) कैसे हो सकती है?
और कोई प्राणी सहसा भी पैदा नहीं हो सकता क्योंकि प्रत्येक जन्मित के लिए एक जन्मदाता का होना अनिवार्य है, तथा इसलिए भी कि इस सृष्टि का इस अनोखे व्यवस्था और आपस में घनिष्ठ सम्बन्ध तथा सबब् (कारण) और मुसब्बब् (परिणाम) के मध्य गहरे ताल-मेल, इसी प्रकार संसार के अन्य भागों के मध्य सम्पूर्ण सहमति के साथ मौजूद होना इस बात को निश्चित रुप से नकारता है कि उनका वजूद सहसा हो, क्योंकि सहसा पैदा होने वाली वस्तु स्वयं अपनी वास्तविक उत्पत्ति के समय ही व्यवस्थित नहीं होती, तो (उत्पन्न होने के पश्चात) अपनी स्थिरता और उन्नति की दशा में कैसे व्यवस्थित हो सकती है?
और जब इस प्राणी वर्ग का स्वयं अपने आप को पैदा करना सम्भव नहीं है, इसी प्रकार इस का सहसा पैदा होजाना भी असम्भव है, तो यह बात सुनिश्चित हो जाती है कि उसका कोई उत्पत्तिकर्ता (पैदा करने वाला) और सृष्टा है, और वह अल्लाह रब्बुल आलमीन (सर्वसंसार का पालनहार) है।
अल्लाह तआला ने सूरतुत्तूर में इस अक़्ली (विवेकी) और निश्चित प्रमाण का वर्णन किया है, अल्लाह तआला का फ़रमान है:
"क्या ये लोग बिना किसी पैदा करने वाले के स्वयं पैदा हो गये हैं या ये स्वयं उत्पत्तिकर्ता (पैदा करने वाले) हैं।" (सूरतुत्तूर :35)
अर्थात् न तो यह लोग बिना किसी पैदा करने वाले के खु़द-बख़ुद पैदा हो गए हैं और न ही इन्हों ने अपने आप को स्वयं पैदा किया है, अत: यह बात निश्चित हो गई कि उनका पैदा करने वाला अल्लाह तबारका व तआला है।
यही कारण है कि जब जुबैर बिन मुत्इम ने रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को सूरतुत्तूर को पढ़ते हुए सुना और आप इन आयतों पर पहुंचे:
"क्या ये लोग बिना किसी पैदा करने वाले के स्वयं पैदा हो गये हैं या ये स्वयं उत्पत्तिकर्ता (पैदा करने वाले) हैं? क्या इन्हों ने आकाशों और धरती को पैदा किया है? बल्कि ये विश्वास न करने वाले लोग हैं। क्या इनके पास आप के रब (स्वामी) के ख़ज़ाने (कोषागार) हैं या (इन ख़ज़ानों के) ये रक्षक हैं।" (सूरतुत्तूर: 35-37)
तो इन आयतों को सुन कर जुबैर ने - जो उस समय तक मुश्रिक थे - कहा कि: "मेरा हृदय उड़ा जा रहा था, और यह प्रथम अवसर था कि मेरे हृदय में इस्लाम बैठ गया।" (बुख़ारी)
इस मस्अले के स्पष्टीकरण के लिये हम एक मिसाल देते हैं:
यदि कोई व्यक्ति आप को यह सूचना दे कि एक बेहतरीन वन है जो बागीचों से घिरा हुआ है और उनके मध्य नहरें बह रही हैं और वन पलंगों और क़ालीनों से सजाया हुआ और विभिन्न प्रकार के श्रृंगार की वस्तुओं से सुसज्जित है, और आप से कहे कि यह विशाल भवन अपनी समस्त गुणों और विशेषताओं के साथ स्वयं बन गया है, या बिना किसी पैदा करने वाले के सहसा यों ही विकसित होगया है, तो आप तुरन्त उसको नकार देंगे और झुठलायेंगे, और उसकी बात को मूर्खता की बात समझेंगे, प्रश्न यह है कि जब एक वन के बारे में बुद्धि इस बात को स्वीकार नहीं करती कि वह बिना किसी अविष्कारक (बनाने वाले) के स्वयं बन गया हो, तो यह विशाल ब्रह्मांड अपनी धरती, आकाशों, गगनों और दशाओं और उसके अनूठे और विचित्र व्यवस्था के साथ स्वयं अपने आप को कैसे पैदा कर सकता है या बिना किसी पैदा करने वाले के सहसा कैसे वजूद में आ सकता है?!
इस अक़ली दलील (बुद्धि संबंधी तर्क) को तो दीहात का रहने वाला एक आराबी भी समझ गया, और उस ने अपनी शैली में इस को व्यक्त किया,  चुनाँचि जब उस से पूछा गया : तू ने अपने रब (पालनहार) को कैसे पहचाना? तो उस ने उत्तर दिया : मेंगनी ऊँट का पता देती है, पाँव के चिन्ह चलने (वाले) का पता देते हैं,  तो बुर्जों वाला आकाश, रस्तों वाली ज़मीन और लहरों वाले समुद्र क्या हर चीज़ को सुनने देखने वाले का पता नहीं देते?!!
दूसरा : अल्लाह तआला की रुबूबियत पर ईमान लाना :
अल्लाह तआला की रुबूबियत पर ईमान लाने का अर्थ इस बात का वचन देना है कि अकेला अल्लाह ही रब (पालनहार और पालनकर्ता) है, उस में कोई उसका साझी और सहायक नहीं।
और रब वह है जिसके लिए विशिष्ट हो सृष्टा होना, स्वामी होना और प्रबंधक एंव संचालक होना, अत: अल्लाह के अतिरिक्त कोई सृष्टा (खालिक़) नहीं, उसके अतिरिक्त कोई स्वामी नहीं और उसके अतिरिक्त कोई प्रबंधक एंव संचालक नहीं, अल्लाह तआला ने फरमाया: "याद रखो ! अल्लाह ही के लिए विशिष्ट है सृष्टा होना और हाकिम (शासक) होना।" (सूरतुल-आराफ: 54)
तथा अल्लाह तआला का फरमान है : "आप कहिए वह कौन है जो तुम को आकाश और धरती से जीविका प्रदान करता है अथवा वह कौन है जो कानों और आँखों पर अधिकार रखता है,  तथा वह कौन है जो निर्जीव से सजीव को और सजीव से निर्जीव को निकालता है, और वह कौन है जो संसार के कार्यों का संचालन करता है? तो इसके उत्तर में ये (अनेकेश्वरवादी) अवश्य कहें गे कि अल्लाह तआला। तो इन से पूछिये कि फिर क्यों नहीं डरते।" (सूरत युनुस : 31)
तथा अल्लाह तआला का फरमान है :"वह आकाश से धरती तक के सभी कार्यों का संचालन करता है, फिर वो (कार्य) उसी की आ चढ़ते हैं।" (सूरतुस्सज्दाः 5)
तथा अल्लाह तआला ने फरमाया : "यही अल्लाह तुम सब का रब (पालनहार) है, उसी का राज्य और शासन है, और जिन्हें तुम उसके अतिरिक्त पुकारते हो वे तो खजूर की गुठली के छिल्के पर भी अधिकार नहीं रखते।" (सूरत-फातिर : 13)
तथा सूरतुल फातिहा में अल्लाह तआला के इस कथन पर गौर कीजिये : (मालिके यौमिद्दीन) कि वह बदले (परलोक) के दिन का मालिक है। और एक मुतवातिर क़िरा'अत (उच्चारण) के अनुसार उसे (मलिके यौमिद्दीन) भी पढ़ा गया है, जिस का अर्थ होता है कि : वह (अल्लाह) बदले के दिन का राजा है। और जब दोनों क़िरा'अतों का अर्थ एक साथ मिलाते हैं तो एक अनूठा अर्थ प्रकट होता है, क्योंकि 'मलिक' (राजा) का शब्द प्रभुत्व, शासन और नियंत्रण का अर्थ, 'मालिक' (स्वामी) के शब्द से अधिक बोध कराता है, किन्तु 'मलिक' (राजा) कभी कभार केवल नाम का होता है उसे कोई प्रभुत्व और नियंत्रण प्राप्त नहीं होता है, अर्थात् वह किसी चीज़ का 'मालिक'  नहीं होता है,  उस समय वह मलिक (राजा) तो होता है लेकिन मालिक (स्वामी) नहीं होता है,  जब यह दोनों तत्व इकट्ठा हो गये कि अल्लाह तआला मलिक और मालिक दोनों है तो उसके लिए यह मामला स्वामित्य और सत्ता व प्रधानता के साथ पूरी तरह संपन्न हो गया।
तीसरा : अल्लाह तआला की उलूहियत (उपास्यता और एकमात्र पूज्य होने) पर ईमान लाना :
अल्लाह तआला की उलूहियत पर ईमान लाने का अर्थ इस बात का वचन देना है कि अकेला अल्लाह ही सच्चा पूज्य है,  उसका कोई साझी नहीं।
"इलाह"  का शब्द "मालूह"  अथवा "मा'बूद"  के अर्थ में है, और मालूह या मा'बूद से अभिप्राय वह हस्ती है जिस की प्रेम और सम्मान तथा प्रतिष्ठा के साथ इबादत की जाए,  और यही 'ला इलाहा इल्लल्लाह' का भी अर्थ है कि : अल्लाह के अतिरिक्त कोई सच्चा पूज्य नहीं, अल्लाह तआला ने फरमाया :
"तुम सब का पूज्य (मा'बूद) एक ही पूज्य है, उसके अतिरिक्त कोई सच्चा पूज्य नहीं, वह बहुत दया करने वाला, अति कृपालू है। (सूरतुल-बक़रा: 163)
दूसरे स्थान पर फरमाया:
"अल्लाह तआला और फरिश्ते तथा ज्ञानी इस बात की गवाही देते हैं कि अल्लाह के अतिरिक्त कोई पूज्य नहीं और वह न्याय को क़ाइम रखने वाला है, उस सर्वशक्तिमान और हिक्मत वाले (तत्वदर्शी) के अतिरिक्त कोई उपासना के योग्य नहीं।" (सूरत-आल इम्रान: 18)
अल्लाह के साथ जिस चीज़ को भी पूज्य ठहराकर अल्लाह के अतिरिक्त उसकी इबादत की जाए उसकी उलूहियत (उपास्यता) असत्य (व्यर्थ और निरर्थक) है, अल्लाह तआला ने फरमाया :
"यह सब इस लिए कि अल्लाह ही सत्य है और उसके अतिरिक्त जिसे भी यह पुकारते हैं वह असत्य है, और नि:सन्देह अल्लाह ही सर्वोच्च और महान है।" (सूरतुल-हज्ज: 62)
अल्लाह के अतिरिक्त असत्य पूजा पात्रों का नाम पूज्य (मा'बूद) रख लेने से उन्हें उलूहियत (उपास्यता) का अधिकार नहीं प्राप्त हो जाता, अल्लाह तआला ने 'लात', 'उज़्ज़ा' और 'मनात' के विषय में फरमाया :
"वास्तव में यह केवल नाम हैं जो तुम ने और तुम्हारे बाप दादाओं ने इनके रख लिए, अल्लाह ने इनका कोई प्रमाण नहीं उतारा।" (सूरतुन्नज्म: 23)
और अल्लाह तआला ने यूसुफ अलैहिस्सलाम के विषय में फरमाया कि उन्हों ने अपने जेल के साथियों से कहा :
"(भला बतलाओ कि) क्या अलग अलग (विभिन्न) अनेक पूज्य (मा'बूद) अच्छे हैं या एक अकेला अल्लाह? जो सर्वशक्तिमान और सब पर भारी है। उसके अतिरिक्त तुम जिनकी पूजा पाट करते हो वे सब केवल नाम ही नाम हैं जो तुम ने और तुम्हारे बाप दादाओं ने स्वयं ही रख लिए हैं, अल्लाह ने उनकी कोई सनद नहीं उतारी है।" (सूरत यूसुफ: 39-40)
अत: महान और शक्तिशाली अल्लाह के अलावा कोई भी यह अधिकार नहीं रखता है कि उसकी पूजा की जाये या उस के लिए किसी भी प्रकार के उपासना कार्य विशिष्ट किये जायें, इस अधिकार में कोई निकटवर्ती फरिश्ता तथा कोई ईश्दूत और सन्देष्टा भी अल्लाह का साझी और भागीदार नहीं है, इसीलिए शुरू से लेकर अंत तक सभी ईश्दूतों और सन्देष्टाओं ने 'ला इलाहा इल्लल्लाह' (एकमात्र अल्लाह तआला के पूजा योग्य होने) का इक़रार करने की दावत दी, अल्लाह तआला ने फरमाया : "और हम ने आप से पहले जो पैगंबर भी भेजा, उसकी तरफ यही वह्य (ईश्वाणी) अवतरित की कि मेरे सिवाय कोई सच्च पूज्य नहीं, तो तुम सब मेरी ही उपासना करो।" (सूरतुल अंबिया : 25)
तथा अल्लाह तआला ने फरमाया : "हम ने प्रत्येक समुदाय में रसूल भेजा कि लोगो! केवल अल्लाह की उपासना करो और उसके अतिरिक्त समस्त पूज्यों से बचो।" (सूरतुन-नह्ल: 36)
किन्तु मुश्रिकों (अनेकेश्वरवादियों) ने इस आमन्त्रण को अस्वीकार कर दिया, और उन्हों ने अल्लाह के अलावा ऐसे पूजा पात्र बना लिए, जिनकी वह अल्लाह सुब्हानहु व तआला के साथ पूजा करते, उनसे सहायता मांगते और संकट के समय उन से फर्याद करते थे।
चौथा : अल्लाह तआला के अस्मा व सिफात (नामों और गुणों) पर ईमान लाना:
अल्लाह तआला के अस्मा व सिफात (नामों व गुणों) पर ईमान लाने का अर्थ यह है कि अल्लाह ने अपनी पुस्तक में या अपने रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की सुन्नत में अपने लिए जो नाम व सिफात सिद्ध किए हैं उनको अल्लाह तआला के प्रतिष्ठा योग्य उसके लिए सिद्ध किया जाए, इस प्रकार कि उनके अर्थ में हेर-फेर न किया जाए, उनको अर्थहीन (अथवा उनका इनकार) न किया जाए, उनकी कैफियत (दशा) न निर्धारित की जाए तथा किसी जीव प्राणी से उपमा (तश्बीह, समानता) न दी जाए, अल्लाह तआला ने फरमाया:
"और अच्छे अच्छे नाम अल्लाह ही के लिए हैं, अत: उन्हीं नामों से उसे नामांकित करो, और ऐसे लोगों से संबंध भी न रखो जो उसके नामों में सत्य मार्ग से हटते हैं (या टेढ़ापन करते हैं), उनको उनके किये का दण्ड अवश्य मिलेगा।" (सूरतुल-आराफ़: 180)
यह आयत अल्लाह तआला के लिए अच्छे नामों के साबित करने पर तर्क है, तथा दूसरे स्थान पर अल्लाह तआला ने फरमाया :
"उसी की उत्तम तथा सर्वोच्च विशेषता है आकाशों में तथा धरती में भी, वही सर्वशक्तिमान और हिक्मत वाला (तत्वदर्शी) है।" (सूरतुर्रूम: 27)
यह आयत अल्लाह तआला के लिए परिपूर्ण गुणों के साबित करने पर तर्क है, क्योंकि (अल म-सलुल आला) का अर्थ होता है : संपूर्ण और उत्तम गुण और विशेषण। अतएव दोनों आयतें सामान्य रूप से अल्लाह तआला के लिए अच्छे नामों और सर्वोच्च गुणों को साबित करती हैं। जहाँ तक इनके विस्तार का संबंध है तो वे क़ुर्आन और हदीस में बहुत अधिक हैं।
अल्लाह तआला के नामों और गुणों का विषय उन विषयों में से है जिन के बारे में उम्मत के बीच बाहुल्य रूप से मतभेद पैदा हुआ है, चुनाँचि अल्लाह तआला के अस्मा व सिफात के बारे में उम्मत विभिन्न समूहों और गिरोहों में विभाजित हो गई है।
इस मतभेद के प्रति हमारा रवैया वही है जिस का अल्लाह तआला ने अपने इस कथन में आदेश दिया है : "फिर अगर किसी चीज़ में मतभेद करो तो उसे लौटाओ अल्लाह और रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की तरफ, अगर तुम्हें अल्लाह और  क़ियामत के दिन पर ईमान है।" (सूरतुन्निसा : 59)
अत: हम इस मतभेद को अल्लाह की किताब और उस के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की सुन्नत की ओर लौटाते हैं, इस बारे में सलफ सालिहीन ; सहाबा और ताबेईन की इन आयतो और हदीसों की समझ और व्याख्या से मार्गदर्शन लेते हुए, क्योंकि ये लोग अल्लाह तआला के आशय और उसके रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के आशय और उद्देश्य को इस उम्मत में सब से अधिक जानने वाले हैं। अब्दुल्लाह बिन मसऊद रज़ियल्लाहु अन्हु ने नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के सहाबा के विशेषण का उल्लेख करते हुये बिल्कुल सच कहा है, उन्हों ने कहा : "तुम में से जो आदमी किसी का अनुसरण करने वाला है तो उन का अनुसरण करे जो मर चुके हैं, क्योंकि ज़िन्दा आदमी कभी भी फित्ना में पड़ सकता है, वे लोग मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के सहाबा हैं, जो इस उम्मत के सब से अधिक नेक दिल, सब से गहन और अधिक ज्ञान रखने वाले और सब से कम तकल्लुफ करने वाले थे, वे ऐसे लोग थे जिन्हें अल्लाह तआला ने अपने धर्म को स्थापित करने और पैगंबर की संगत के लिए चुन लिया था, अत: उनके अधिकार को पहचानो, उनके रास्ते पर दृढ़ता से जम जाओ, क्योंकि वे लोग सीधे मार्ग पर थे।"
इस अध्याय में सलफ सालेहीन के रास्ते से जो भी हटा, उस ने गलती की और पथ भ्रष्ट हो गया और मोमिनों के रास्ते के अलावा की पैरवी की और अल्लाह तआला के इस कथन में वर्णित धमकी का पात्र बन गया : "और जो सत्य मार्ग के स्पष्ट हो जाने के बाद रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का विरोध करे गा और मोमिनों के रास्ते के अलावा की पैरवी करे गा, हम उसे उसी मार्ग पर डाल देंगे जिस की ओर वह चला है, फिर हम उसे नरक में झोंक दें गे और वह बहुत बुरी जगह है।" (सूरतुन्निसा : 115)
अल्लाह तआला ने हिदायत के लिए यह शर्त लगाई है कि आदमी का ईमान उसी के समान हो जिस पर नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्ल्म के सहाबा रज़ियल्लाहु अन्हुम ईमान लाये थे, जैसाकि अल्लाह तआला के इस फरमान में है : "यदि वे तुम जैसा ईमान लायें तो हिदायत (मार्गदर्शन) पायें गें।" (सूरतुल बक़रा :137)
अत: जो भी सलफ सालेहीन के रस्ते से हटेगा और दूर होगा, तो उसके सलफ सालेहीन के रास्ते से दूरी की मात्रा में उसकी हिदायत के अंदर कमी हो जायेगी।
अतएव इस अध्याय में अनिवार्य यह है कि जो अस्मा व सिफात (नाम और गुण) अल्लाह तआला ने अपने लिए साबित किये हैं या उस के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने उस के लिए साबित किए हैं, उन्हें साबित किया जाये, कु़र्आन और हदीस के नुसूस (मूल शब्दों) को उसके ज़ाहिरी (प्रत्यक्ष) अर्थ पर बरक़रार रखा जाये, और उन पर ऐसे ही ईमान रखा जाये जैसा कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के सहाबा रज़ियल्लाहु अन्हुम ईमान रखत थे, जो कि इस उम्मत के सर्वश्रेष्ठ और सब से जानकार लोग थे।
यहाँ पर यह जानना आवश्यक है कि चार प्रतिषिद्ध चीज़ें ऐसी हैं कि जो आदमी उन में से एक के अंदर भी पड़ गया तो उस का अल्लाह तआना के नामों और गुणों पर ईमान उस तरह संपूण नहीं होगा जैसा कि होना अनिवार्य है, और अल्लाह तआला के नामों और गुणों पर ईमान लाना उस समय तक शुद्ध नहीं हो सकता जब तक कि इन चार प्रतिषिद्ध चीज़ों का इनकार न पाया जाये और वो यह हैं : तह्रीफ, ता'तील, तम्सील और तक्ईफ।
इसी लिए हम ने अल्लाह के अस्मा व सिफात का अर्थ बतलाते हुये कहा था कि वह यह है कि : (अल्लाह ने अपनी पुस्तक में या अपने रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की सुन्नत में अपने लिए जो नाम और सिफात सिद्ध किए हैं उनको अल्लाह तआला के प्रतिष्ठा योग्य उसके लिए सिद्ध किया जाए, इस प्रकार कि उनके अर्थ में हेर-फेर न किया जाए, उनको अर्थहीन (अथवा उनका इनकार) न किया जाए, उनकी कैफियत (दशा) न निर्धारित की जाए तथा किसी जीव प्राणी से उपमा (तश्बीह, समानता) न दी जाए।)
अब हम संक्षेप में उन चार चीज़ों की व्याख्या करत हैं :
1- तह्रीफ :
इस से अभिप्राय यह है कि किताब व सुन्नत के नुसूस (मूल शब्दों) के अर्थ को उसके उस वास्तविक अर्थ से जिस पर किताब व सुन्नत दलालत करते हैं, -और वह अल्लाह के अच्छे नामों और सर्वोच्च गुणों को साबित करना है-, परिवर्तित कर के ऐसा अर्थ मुराद लेना जिसे अल्लाह त-आला और उस के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने मुराद नहीं लिया है।
इसका अदाहरण :
'यद्' (हाथ) की सिफत जो अल्लाह तआला के लिए साबित है और क़ुर्आन व हदीस के बहुत से नुसूस में विर्णत है, उसके अर्थ को बदल कर उस से नेमत, अनुकम्पा या शक्ति और सामर्थ्य मुराद लेना
2- ता'तील :
इस से अभिप्राय अल्लाह तआला के अच्छे नामों और सर्वोच्च गुणों या उन में से कुछेक का इनकार करना है।
अत: जिस आदमी ने भी क़ुर्आन या सुन्नत में साबित अल्लाह के नामों में से किसी एक नाम, या उस की सिफात में से किसी एक सिफत को भी नकार दिया तो वह वास्तव में अल्लाह के अस्मा व सिफात पर शुद्ध रूप से ईमान लाने वाला नहीं है।
3- तमसील :
इसका मतलब यह है कि अल्लाह तआला की सिफत को मख्लूक़ की सिफत के समान ठहराना, उदाहरण के तौर पर यह कहना कि : अल्लाह का हाथ मख्लूक़ के हाथ के समान है,  या यह कि अल्लाह तआला मख्लूक़ के सुनने की तरह सुनता है, या यह कि अल्लाह तआला अर्श (सिंहासन) पर उसी तरह मुस्तवी है जिस तरह कि मनुष्य कुर्सी पर विराजित होता है ... इत्यादि।
इस में कोई सन्देह नहीं कि अल्लाह तआला के गुणों को मख्लूक़ के गुणों के समान ठहराना असत्य और गलत है, अल्लाह तआला का फरमान है : " उसके समान कोई वस्तु नहीं, और वह सुनने वाला और देखने वाला है।" (सूरतुश्-शूरा: 11)
4- तक्´ईफ :
इस से अभिप्राय अल्लाह तआला के गुणों की कैफियत, दशा और स्थिति निर्धारित करना है, चुनाँचि इंसान अपने दिल में या अपनी ज़ुबान से अल्लाह तआला की सिफत की दशा को आंकने और निश्चित करने का प्रयास करे।
यह निश्चित रूप से बातिल और असत्य है, और किसी भी मनुष्य के लिए इस का जानना संभव नहीं है, अल्लाह तआला का फरमान है : "मख्लूक़ का इल्म (ज्ञान) उसे घेर नहीं सकता।" (सूरत ताहा :110)
जिस ने इन चारों चीज़ों को पूरा कर लिया, तो वह अल्लाह तआला पर शुद्ध रूप से ईमान लाया।
हम अल्लाह तआला से प्रार्थना करते हैं कि हमें ईमान पर सुदृढ़ रखे और उसी पर हमें मृत्यु दे।
और अल्लाह तआला सर्वश्रेष्ठ जानता है।
देखिए : रिसालह शर्ह उसूलुल ईमान,  लेखक : शैख इब्ने उसैमीन
इस्लाम प्रश्न और उत्तर